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चलने को तो चल रही है ज़िंदगी
बेसबब सी टल रही है ज़िंदगी ।

बुझ गये उम्मीद के दीपक सभी
तीरगी में ही पल रही है ज़िंदगी ।

ऐ खुदा ,रहमो इनायत पे तेरी
ये मुकम्मल फल रही है ज़िंदगी ।

हमसफ़र आ थाम ले दामन मेरा
बिन तेरे अब खल रही है ज़िंदगी ।

जो लहक तूने लगायी प्यार की
देख उसमें जल रही है ज़िंदगी ।

जैसे कोई बर्फ़ का सिल्ली हो ये
अब हरिक पल गल रही है ज़िंदगी ।

वैसे तो चार दिन की है मगर
आजकल में टल रही है ज़िंदगी ।

काश ,आए मेरे गुलशन में फिज़ा
चाह में ही ढल रही है ज़िंदगी । 

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आदमखोर
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उन दिनों जब नील नदी के किनारे
मिस्र की सभ्यता उजड़ रही थी
भूख से बिलबिलाता मनुष्य
बीहड़ वन से गुजरते हुए 
मनुष्य का ही शिकार कर
अपनी क्षुद्धा की तृप्ति करता था।
आदमखोर अब भी हैं
उनकी बस नीयत बदल गयी है
खाने को पर्याप्त चीज़ें हैं अब
इसलिए वे मात्र उन माँसल
अंगों में दांत गड़ा कर
और पंजों से नोच
क्षत - विक्षत छोड़ देते हैं क्योंकि
वे आदमखोर नहीं हैं। 

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बसंत
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नव कालिका ,नव पल्लव
नवजीवन का आह्वान
कानन कुंजन में कलरव
गूँजे नवल विहान ।
सरसों फूली,  झूली अमुआ 
टेसू अमलतास लहराए
महमह मदमाती महुआ
दावानल सा भरमाए ।
जड़ – चेतन में तरुणाई
प्रकृति संग आई
देख साँझ की अरुणाई
पवन चली बौराई ।
रंग बसंती , रूप बसंती
झूमकर आया वसंत
मन गिरह खोल सुमति
भर गया ऋतु महंत ।
समाहित कर अक्षय उल्लास
चलीं  नदियां ताल सरवर
बसंत की आभा औ विभास
धरा पर गगन पर  मनहर ।

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