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 फिर उगना आ गया है

 लगाकर  रखा था बरसों तक पहरा
हमें घर से निकलना अब आ गया है।
छाया था काले धुएँ सा कुहरा
हमें सूरज सा निकलना  आ गया है।
जीवन के टेढ़े - मेढ़े रास्तों, संभल जाओ
हमें राह बदलना  आ गया है।
हाथ की  रेखाओं ज़रा बदल जाओ
हमें किस्मत गढ़ना  आ गया है।
कमर कस  लिया हुनर हज़ार सीखने को
हमें हर  हार को जीतना   आ गया है।
 बिस्तर की  फ़िक्र है नींद वालों को
हमें करवटों में रात गुज़ारना  आ गया है।
मेरे परवाज़ को उठती हज़ारों दुआएँ
हमें तुम्हारा कद्र करना   आ गया है।
ठान लिया , आँधियों का रुख़ मोड़ते जाएँ
हमें ढल  कर फिर उगना आ गया है।  

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(झारखण्ड स्थापना दिवस पर एक कविता )
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अबुआ  राज...
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जल  - जंगल - ज़मीन से जुड़ा 
एक प्रदेश अब भी है ऐसा 
न्यूनतम जहाँ बदलाव आया 
न्यूनतम मुख्यधारा से मिला। 
भूगर्भ में दबा अकूत खनिज 
महुआ और कंजर से वन  भरा 
बाँस  के लुभावने पेड़ों से 
अनगिन का है रोज़गार जुड़ा। 
फसलें लहरातीं हैं झूम झूम  कर 
पसीने से जब तन  नहाता
कातर  नैन नभ को तकता 
बारिशों में है  जीवन पलता। 
जलप्रपातों की  कलकल निनाद 
हवाओं संग राग मिलाती 
दूर का बटोही श्रांत - क्लांत 
अपनी शिकन यहाँ मिटाता। 
माँदर - ढोल की थाप पर 
थिरकते थाम हाथों में हाथ 
चिर - प्रतिक्षित रहता करमा - सरहुल  
पत्तों का सिरमौर पहन पुष्पहार। 
अद्भुत छटा अनमोल उन्माद 
देख चहकते क्षितिज पर पाखी 
अपनी कला - संस्कृति निराली 
हम सा कोई ना दूजा। 
सब कुछ  तो है यहाँ !
तभी साधिकार स्वराज चाहा 
पंद्रह नवंबर जब - जब आता 
वर्षगांठ पर वादों - इरादों का 
भरपूर सौगातें लाता।   
एक काँटा उर में चुभता 
सरकार के सभी समीकरणों का 
आखिर क्यों  न नतीजा फलता?
बेगारी ,लाचारी ,भ्रष्ट आचारी का 
करके समूल नाश 
दुवृत्तियों का तोड़ कर पाश  
बिरसा के बलिदान का क़र्ज़ 
मुट्ठी की ताक़त में पहचानें। 
है पुण्य माटी पर हमको  नाज  
आओ बनाएँ प्राची के सूर्य सा 
अबुआ दिशोम ,अबुआ राज।  

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