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मैं समझ जाती


रंज ओ गम में कोई टूट रहा
कोई ख़्वाबों में ही मगरूर रहा
ख्वाहिश दिल की बस इतनी थी
क्या उसकी हालत भी मेरे जैसी थी !!!
वह मचलता मेघ ,मैं मयूर बन गयी
प्यार में उसके मैं धरती बन गयी
इंतज़ार में जिसके ज़र्रा - ज़र्रा  बंज़र है
वह छत बदल - बदल  कर बरसता है।
इतना ही तो चाहा  था ज़िन्दगी से
कभी वह भी याद करता संजीदगी से
अनायास कभी हिचकियाँ बंध जातीं
कोई याद कर रहा है ,मैं समझ जाती।

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माटी की देह

तरु के वृंत पर खिलता सुमन
देख  आज जग की खुशहाली  
इतरा रहा भाग्य पे अपने भुवन
क्या पता कल आये न आये हरियाली
क्षणिक हैं दिन बहार के
क्रूर  हाथों से   कल कोई माली
गूँथ कर तुम्हे हार प्रणय के
छीन  ले सौन्दर्य का लाली
रूप लावण्य का मत दंभ भर
देख लालायित मधुप को
मदहोश सा  अंग - अंग चूमता
आतुर तुम्हारे रसपान को
मुट्ठी का रेत सा है जीना
जान  यह मन होता विचलित
हरि - शीश पर जाने कब चढ़ जाना
यही अनिश्चित है निश्चित
पछताएगा रिश्तों से कर नेह
चार दिन का है हँसना - गाना
फिर तो माटी की देह
है माटी में मिल जाना ।

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