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फिर लौट रहा मधुमास

फिर लौट   रहा   मधुमास 


फिर लौट   रहा   मधुमास 
हरे रंग का ओढ़े लिबास
 ख़ुश्क  रंगत निखर गयी 
दुल्हन सी प्रकृति सज गयी ।

पवन रथ में हो सवार 
परिणय मिलन को बेकरार 
तूफ़ां लिए पयोद मचल रहा 
अरमान इधर भी धधक रहा ।

कलियों में जो मुस्कान भरता 
उर में वो उल्लास रचता 
माटी में सौंधी महक
कानन में कौंधी चहक।

सुर के पाखी लुभाते 
डाली - डाली पींगें लगाते 
नीड़ों में कहाँ चैन - बसेरा
उनींदी आँखों में होता सबेरा ।

छा  गया समंदर गगन में 
विटप मुस्काया  उपवन में 
कोई संदेशा भेजा ना तार 
पाहुन का फिर भी  है इंतज़ार । 

मन पखेरू उड़ चला 
प्रकृति संग झूम चला 
कण - कण को है आभास 
फिर लौट रहा मधुमास ।   

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     बोंसाई

मैं कोई बोंसाई का पौध नहीं 
जिसकी जड़ों को काट कर 
शाखाओं - प्रशाखाओं को छाँट कर 
एक गमले में रोप दिया ।
मैं तो मैं हूँ ।
बेटी ,बहन और पत्नी  के रिश्तों का 
निर्वहन करती हुई भी 
एक स्वतंत्र व्यक्तित्व  हूँ ।
अपना एक वजूद है 
एक ठोस ज़मीनी सतह हूँ 
जिस पर काल के झंझावातों ने 
कम विनाश नहीं रचा।
फिर भी सुनहरी किरणों वाला सूर्य 
हर दिन उगता है ।
हवाएँ सुरमयी संगीत बिखेरती हैं
नव पल्लवन को मैं उल्लसित रहती हूँ ।
मेरे अंतर को चीर कर देखो 
गर्म लावा प्रवहित है   ।
जब भी मेरे वजूद को ललकारा 
मैं ज्वालामुखी बन जाती हूँ ।
नहीं बनती मैं बेवज़ह बर्बादी का सबब 
लेकिन मेरी कोमलता कायरता नहीं है ।
बंधी है इसमें एक कूल की मर्यादा 
और आँगन की किलकारियों का अविरल प्रवाह ।
कुम्हार के चाक सा सुगढ़ निर्माण 
लिखा है मेरी हथेलियों में 
फिर भला क्यूँकर इनसे हो  विनाश ?
अपने सर्ग का उपहार 
बस यही माँगू  मैं 
कि बढ़ने दो मुझे वट सा विस्तृत ।
मेरी छांव से ना कर गुरेज
प्रकृति ,प्राणी ,प्रयास 
मैं ही तो हूँ ।
बोंसाई के बगल में 
अपनी पौध लहरा कर 
सामंजस्य कैसे कर पाओगे तुम ?
दो एक विशाल आयाम मुझे 
और अगर नहीं  दे पाए 
तो मेरे आकाश को ना बाँधो
उड़ने दो मुझे स्वतः
जैसे नील गगन में उड़ता जाता है 
पक्षी क्षितिज के पार ।  

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