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पारिजात बहक जाएँ

बारिशों आज थमना रात भर
आये हैं वो बड़े तलब से मेरे शहर
मेघों से नीर ले लो अगले बरस का
रुक कर चुका जाएँ वो उधार मुद्दत का
हवाओं तुमसे ज़रा तेज बहने की गुज़ारिश है
बहारों के शबाब में मेरे अक्स की नुमाइश है
कि बेमौसम खिल उठे पारिजात बहक जाएँ
खुशबुओं से लबरेज फिजां क़यामत ढा जाएँ
सुना है मेरी गली से आज वो गुजरने वाले हैं
मेरी दीवारों पर शीशे के कतरे लगे हैं
या खुदा मेरी आँखों को झपकने देना
हर कतरे की मूरत मेरे ज़ेहन में उतार देना
साँसों की रफ़्तार में तरन्नुम सजने लगी
बेवज़हा होंठों पे तबस्सुम थिरकने लगी
एक बार उनकी नज़रें इनायत हो जाएँ
मुद्दतों की ख़लिश पल भर में मिट जाए।

sangita  – (26 August 2012 at 03:34)  

आपका प्रकृति से लगाव प्रदर्शित करती है आपकी पोस्ट |शानदार |

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