इस ब्लॉग से मेरी अनुमति के बिना

कोई भी रचना कहीं पर भी प्रकाशित न करें।

                    सांझ 
 किरणों का अवकुंचन कर सूर्य ने
साम्राज्य  अपना समेटा है 
सुदूर  गाँव की सीमा पर बैलों ने 
धूल हवा में बिखेरा है ।
कमलिनी सिमट रही पंखुरियों में 
भौरों ने तान नया छेड़ा है 
खग कलरव गूँज रहा नीड़ों में 
स्वागमन का सन्देश भेजा है ।
दीया - बाती सज गए थालों में 
सांझ के तारे ने पैगाम भेजा है 
रात की बारात सजेगी पल में 
रजनीगंधा ने सुवास फैलाया है ।
शंखध्वनि की जादुई शक्ति में 
क्लांत मन खिल उठता  है 
पुलक उठता मनमयूर क्षण में 
ज्यों मंद बयार बहता है ।
सौंप कर सत्ता चाँद के हाथ 
दिवसेश्वर ने भाईचारा दिखाया  है 
दिवानिश का कर बंटवारा,तुमने साथ 
युगों - युगों से निभाया है ।





Read more...


  इतना ही बरसना मेघ 


प्राण - त्राण को मचल रहे जीवक 
अपलक निहारते नभ को नीड़क
जलदागम का संदेशा लेकर आयी
 द्रुतगति से बह निकली पवन बौराई।


आकुल मेघ ,कभी भिड़ते कभी गरजते 
जाने कौन  सी बेचैनी उर में छिपाते 
ज्यों एक बूँद गिरा ,फिर बूँदों की लड़ियाँ
मन - मयूर खिल उठा ,चहूँ दिशा में खुशियाँ ।


जीवन की डोर थामे, तुम हो प्राण वशिता 
कवि हृदय मुखर पड़ता देख तुम सा वर्षिता 
कल था हर कोई बेदम ,बेचैन ,विक्लिष्ट 
आज दमक रहा ,रूप कर रहा विश्लिष्ट ।


कंकाल सरीखे डाल ,जीवन नया पाते 
सूख पड़े थे ताल ,फिर तरुणाई पाते 
मृततुल्य थे प्राणी ,तुमने दिलाई आस 
इतना ही बरसना मेघ, जितनी है प्यास। 

Read more...


   मैं विश्वम्भरा हूँ 


अंतर्मन में दुंदुभी बजती है 
वाद - प्रतिवाद में खूब ठनती है 
निःशब्द युध्म महा विध्वंशक होता है 
मन का तार - तार छलनी करता है ।


खोलना चाहा जब मन का गिरह 
झटक दिया तुमने कह मुझे निरीह 
पग-पग पर बिछाया काँटों की सेज 
जब की बराबरी ,करना चाहा निस्तेज ।


रे पुरुष ,अब न सहूँगी , मैंने ठान लिया 
स्त्री की अस्मिता आखिर तुमने मान लिया 
 युगांतर में विलम्ब नहीं ,मैं विश्वम्भरा हूँ 
अंतर्भूत है ज्वाला और ज्वार की उफान हूँ ।


सूर्यमान सी दीपित होती जाऊँगी
प्रबल प्रवाह सी बहती जाऊँगी 
आये जो तिमिर की सघनता 
या शिलाखंड की बाधा अनंता ।


दीप्तमान रहना है ,न लौटूँ हो निराश 
अजेय रहना है ,काल का तोड़ पाश 
म्रियमाण नहीं ,साक्षात देवी अवतार
 दिविज हूँ ,शक्ति मुझमे अपरम्पार ।

Read more...


     प्रकृति सन्देश 
    
पत्तों पर गिरती बूँदों की थाप 
एक मधुर संभास 
नीर है सुख का या है संताप 
होता नहीं ज़रा आभास ।
विरह अगन की पीर में 
झुलस गए पात - शाख 
शुष्क वायु के मौन निमंत्रण में 
उड़ उठा नीरद लगा पाख ।
संजोया था महीनों से उर में 
आज जी भर  बरसता है 
आखिर कितना रोके कोई दिल में 
कभी तो सैलाब टूटता है ।
प्रबल सम्मोहन है पयोद का 
धरती बड़ी प्रसारिणी है 
देख बरसना पिय का 
झट घूँघट हरा काढ़ी है ।
क्षणिक है बहारों की चारुता 
मौसम की अंगड़ाई इच्छित है 
विलग काल की करुण असमग्रता
मिलन - आह्लाद में अस्तमित है ।
अंतर्मन के तार जब जुड़ते हैं 
चाहत स्पंदन बन जाती है 
शब्द औ' भाषा लुप्त हो जाते हैं 
मूक प्रेम मिसाल बन जाती है ।

Read more...

LinkWithin