तुम नज़्म मेरी
तुम नज़्म मेरी
लताओं सी नाज़ुक यादें जब गहराने लगती हैं
फि़ज़ां की खुशबू कुछ जानी पहचानी सी लगती है ।
ज़माने की हमदर्दी जब शूल बन जाती है
वेदना ,शब्द बन पन्नों पर उतर जाती है ।
अल्फाज़ जो लब पर आते नहीं हैं
सिसकियों से नाता जोड़ लेते हैं ।
उम्मीदों के पुल जब ध्वस्त हो जाते हैं
अश्क गले से घूँट बनकर उतरते हैं ।
नदी का दो पाट बनना, जी को डराते हैं
बूँदों को संजोकर चलो, मेघ बन जाते हैं ।
मेरी ख़ामोशी में टिकी है सब्र की नींव
नाज़ुक है ,झेल नहीं सकती आवेश तीव्र ।
चाहे आदेश समझो या मान रख लो अर्ज़ का
तुमसे ही बँधी साँस तुम इलाज मेरे मर्ज़ का ।
दरवाज़े पर मेरे धीमे से दे दो दस्तक
तुम हो नज़्म मेरी, गूँज उठे सुर सप्तक ।
shandar post hae bdhai..........
बहुत सुन्दर भाव ...
बहुत सार्थक प्रस्तुति!
दरवाज़े पर मेरे धीमे से दे दो दस्तक
तुम हो नज़्म मेरी, गूँज उठे सुर सप्तक ।
बहतरीन अंदाज़ की नज्म दिलखुश नज्म दिलखुश अंदाज़ -ए -बयाँ .
आप सभी को ये रचना अच्छी लगी ,मैं बड़ी खुशनसीब हूँ कि अगली प्रस्तुति के लिए प्रेरणा मिल गयी ।आप के प्रोत्साहन से ही कुछ लिख पाती हूँ । आभार ।
dilbagji ने चर्चा मंच पे लगा कर मुझे surprise ही दे दिया, धन्यवाद
दरवाज़े पर मेरे धीमे से दे दो दस्तक
तुम हो नज़्म मेरी, गूँज उठे सुर सप्तक ।
..bahut sundar dhang se dil ke sur mukhar karti rachna....
ज़माने की हमदर्दी जब शूल बन जाती है
वेदना ,शब्द बन पन्नों पर उतर जाती है ।
खूबसूरत अंदाज़.....
punamji aur kavita rawatji ko mera hardik dhanywad aapki pratikriyaen mere liye margdarshak hain.
BAHUT SUNDAR ABHIVYAKTI ! NISANDEH BAHUT SUNDAR LIKHTI HAIN AAP !