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कसक



                                                            
काल के सागर - मंथन से मिलता अनुभव 
बेशकीमती है रत्न - सरीखा ,प्राणोद्भव
गुज़रती है जीवन यात्रा कई पारदर्शी परतों से 
कुछ खट्टे ,कुछ मीठे, पलों के तालमेल से ।


अपनी ही चौखट से बंधा ,छद्म घेरे में विचरता 
कूपमंडूक ,सुख -दुःख बाँटने को कोई नही मिलता
 अनगिनत सपनों के भँवर में घिरी है सांस तंत्र
 कुछ से उबरते ,कुछ में डूबते , मानव है एक यंत्र ।


जीवन राग मौन है ,सुबह - शाम की आपाधापी में 
विलीन है प्रस्तर प्राण ,स्वरचित ताना तानी में 
रिश्तों की चटक बार -बार भेदती है हृदय द्वार को 
कुछ बेबसी ,कुछ लाचारी ,कठपुतली तोड़े नही डोर को ।


यादें करवट लेतीं हैं ,जब निहायत एकाकीपन में 
ढूंढ़ता है मन एक घर को,बंधा जो हो स्नेहसूत में 
कसक जीवन की ,उन्हीं संजीवनी यादों से भरती है 
कुछ गम ,कुछ खुशियाँ ,आँखों की नीर बन जाती है  ।  

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आतंक



                              आतंक     


रात की निस्तब्धता 
अदृश्य शोर 
धुंधलाती भोर 
निर्लिप्त क्षुब्धता।
हर ओर एक विकल प्राण 
दौड़ती -भागती ,कुछ तलाशती 
कभी पाती ,कभी खोती
अखंडित मृगतृष्णा ।
चेतन शून्य सहमे प्रयास 
अनदेखा मंजिल 
कितनी दूर ,कितने पास 
परेशां बेहाल 
खोते आस ।
एक विराम की अभिलाषा 
कितनी सबल ,कितनी  सुखद 
यही तो है अविरल जीवन की 
     चिरंतन परिभाषा ।

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पन्ने अतीत के


                           
पुरवा बयार कभी अकेले नहीं आती है
यादों का पुलिंदा साथ उड़ा लाती है ।
बहुत कोशिश की, वर्तमान के धड़कन को 
आत्मसात कर लूँ ,भूल उस निर्मोही को ।
पर जाने क्या कशिश है ,क्या खींचता है 
 अंतर्दव्ंदव्  का गिरह वहीँ आकर खुलता है ।
शिलाओं को चीर  जो उन्माद धारा बहती थी 
जाने क्यों अब शिथिल मटमैली हो गयी है ।
बाँसुरी की तान सुरीली जो गुंजित होती थी 
आज ठूंठ बनी लकड़ी हो टूट रही है ।
मोती कहाँ मिलता हर सागर - मंथन में 
जानकर भी बावरा मन, बहलता है बेकरारी में ।
वह उन्माद ,वह तान कहाँ से लाऊँ,कहाँ स्रोत है 
अंतर्मन की  खामोशी जाने किस तूफ़ान  का संकेत है?
समय का पहिया सबके लिए एक सा घूमता है 
फिर मेरे घर पर क्यूँ एक मुद्दत से रुका है ?
अब बस ,मत तौलो सही गलत के पैमाने में 
स्वाति बूंद की चाह है, जीने की आरज़ू में ।
प्रेम की थाह मत पूछो, सीप में समाया सागर है 
दुनिया तुम्हारी विस्तृत ,मेरी तो मुट्ठी में संसार है । 
            

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आशा -किरण



धुंध के उस पार जो प्रकाश - पुँज है
वह महज किरण नहीं इक आस है।
भेदकर अंधकार की शून्यता जो आती है ,
अरमानों की बगिया खिल -खिल जाती है ।

भला किस द्वार पे वसंत ताउम्र टिका है
पतझड़ का झंखाड़ बार -बार दस्तक देता है ।
जिस चौखट को लांघ खुशियाँ आती हैं
वहीँ से उदासियों की कतार खड़ी हो जाती है ।

सृजन का गणित ही ऐसा है
विनाश का अनुपात उसी जैसा है ।
जिस रोशनदान के पीछे रजनी गहराती है
आखिर वहीँ से छनकर रश्मि आती है।

समय के स्वर्णिम पन्ने पर मौज़ूद
नहीं है चिरकाल स्थायी कोई वज़ूद।
मिलन में छिपी है विरह - वेदना
समझ नहीं पाता इसे मानव चेतना ।

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