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शरद तुम आ गए






   लो ,काँस के फूल फिर खिल गए 
दिवास्पति ने समेट लिया है ताप 
धीरे - धीरे ,शरद तुम आ गए 
दिवस संकुचन में दिखती  छाप ।

सुखद स्नेहल  धूप पर 
तन गयी कोहरे की चादर 
लम्बी काली गहराती रात पर 
ठिठुरन की सौगात कर गयी कातर ।

महलों की पीड़ा तो क्षणभंगुर होती
झोपड़ी पर तुम कहर ढाते ।
दुःख  की बदली  बेध सुख की  किरणें आतीं 
परिवर्तन - चक्र यही सन्देश लाते 

प्रकृति ने तुम्हारा आमंत्रण स्वीकारा
हरीतिमा इर्द - गिर्द लहराने लगी।
कल प्रिय थे ,आज इंतज़ार तुम्हारा
फूलों की डोलियों से सेज सजने  लगी  ।

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मैं तैयार हो जाऊँ



              मैं तैयार हो जाऊँ


वो शब्द कहाँ से लाऊँ
जिसकी अभिव्यक्ति की उष्णता
झंकृत कर दे तुम्हारे हृदयतंत्री के तार
मोहक हो जाए जीवन निस्सार
पुनः पल्लवन को मैं तैयार हो जाऊँ।


वो लम्हा कहाँ से लाऊँ
जिसकी तरंगों में न हों स्मृतियाँ
प्रेमरस में लिप्त तुम्हारे नैन कुसूरवार
दे रहे मौन निमंत्रण बारम्बार
मोहपाश में बंधने को मैं तैयार हो जाऊँ।


वो रात कहाँ से लाऊँ
जिसकी शाशिसिक्त शीतलता
थाम ले तुम्हारे दिल के तूफ़ान
रोक अनकही  बातों का उफ़ान
आत्म - विसर्जन को मैं तैयार हो जाऊँ ।

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स्मृति - शेष

   
ज़िन्दगी को सहेजने की जद्दोजहद में
आज फिर उनसे मुलाकात हो गयी ।
सुनसान गलियाँ ,शरद की नीरवता में
अदृश्य घंटियों से गुलज़ार हो गयी ।
बेरंग होती कैक्टस यत्र -तत्र गमलों में
पुनः पुष्पित होने को मचल गयी ।
विषपान जो सीखा जुदाई के अंतराल में
स्नेह सुधा के रसपान को तरस गयी ।
काँटों पर चलना सीखा मैंने तन्हाई में
दर्द ज़ख्मों के स्वतः ही मरहम बन गए।
सुकून जो पाया मैंने कुछ स्मृतियों में
आज चलचित्र बन फिर कौंध गए।
प्राणदीप जलती रही मेरे सूनेपन में
ख्यालों की दुनिया परिपक्व होती गयी ।
अनजाने लोग बँधते गए रिश्तों की डोर में
ख्वाब ही सही ,आबाद जहां मेरी होती गयी ।

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"माँ" (कविता विकास)

अतीत के आईने में निहारने को
जब स्वयं को सँवारती हूँ
कई झिलमिलाते परतों में माँ
तुम ही तुम नज़र आती हो ।

पूजा की थाल सजाकर नमन को
जब देव -प्रांगण जाती हूँ
अनेक देवताओं के बीच माँ
तुम देवी बन मुस्काती हो ।

दुनिया की भीड़ में अपने -आप को
जब असहाय ,अकेला पाती हूँ
भागते क़दमों से आकर माँ
तुम मुझे थाम लेती हो ।

उम्र के ढलते पड़ाव पर अवलोकन को
जब विस्मृत होती पन्ने पलटती हूँ
एक विस्तृत मकड़जाल की उलझन से माँ
तुम मुझे खींच निकालती हो ।

ज़मीनी फासलों के दरम्यान तुम्हारी दीदार को
जब तड़पती, आहें भरती हूँ
कभी दुर्गा ,कभी लक्ष्मी रूप में माँ
तुम मेरी शक्ति बन जाती हो ।

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"अहसास" (कविता विकास)

झुक रहा गगन बार -बार आलिंगन को
क्यूँ आज बेसब्र धरा ,पास है मिलने को ?
सतरंगी रवि किरण ,भाती नहीं मन को
क्यूँ आज बेचैन है मन, धवल चाँदनी को ?

ठूँठ पड़ी अमलतास थी भाग्य पर कातर
नव पल्लव क्यूँ आज, श्रृंगार को है आतुर ?
सज गए सेज पलाश के ,महक रहा मलय बयार
बार -बार क्यूँ अरमाँ करवटें लेता ,उमड़ पड़ते ज्वार?

जो तुम आ गए , ऊसर मन -प्राण खिल गया
क्यूँ निर्बाध बहता समय ,मुट्ठी में क़ैद नहीं हुआ ?
पावस फुहार से मन का कोना -कोना भीग  गया
क्यूँ ढुलक गए बूंद नैनों से ,हर्ष वेग उफनता हुआ ?

वह साथ क्षणिक था ,पल दो पल का
भला क्यूँ खिड़की के कोने से, चाँद झांक रहा है ?
कहीं वह गवाह तो नहीं ,उस चिरंतन अहसास का
भला क्यूँ उसके नाम से ,हृदय धड़क रहा है ?

'मैं' से 'हम' तक का सफ़र ,बर्फीले मरू से हरियाली है
आसमां के पैबंद तभी ,आज खाली -खाली हैं ।
सितारे बिछ गए ज़मीं पर ,अमावस नहीं काली है
तन्हां नहीं अब हम ,आज हमारी दीवाली है ।

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     बरगद 


यह कहानी है ,बरगद के साम्राज्य का 
एक कानन का वह शहंशाह था ।
अहं था अपनों पर भगवान कहलाने का 
लटकी जटाओं में बच्चों का डेरा था ।
कोलाहल आस   -पास ,मस्ती घंटों का 
चबूतरे पर पंचायत का जमावड़ा था ।
प्रतिद्वंद्वी नहीं कोई दूसरा उस परिवेश का 
सूखी झाड़ियों और दूब पर रौब था ।
पनपा नहीं  गवाह तत्कालिक इतिहास का
 बियाबान के राजा ने  तब जाना बाँटने में सुख है।
मोटे तने की बुजुर्गियत सुनती है पीड़ा एकाकी का 
 ष्णता नस - नस की यूँ ही सूख जाती है 
पुनर्जन्म हो तो, चाह है छोटा बनने का
दंश अकेले का बरगद बन झेल लिया है ।
विशाल हो गया रस निचोड़ कर कण -कण का
एकाधिकार नहीं चाहिए ,छोटा  होने में भलाई है ।

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" .......उड़ने की इच्छा हुई" (कविता विकास)

आशाओं के पंख लगा कर
क्षितिज पर उगते सूरज की
 लालिमा में डूबने की इच्छा हुई
आज फिर उड़ने की इच्छा हुई ।


वाष्प में परिणत होकर
 नभ में तैरते पयोद की
 कालिमा में घुसने की इच्छा हुई 
आज फिर उड़ने की इच्छा हुई ।


फूलों के सुर्ख रंग चुराकर
फुनगी पर लगे कोपलों की
सम्वृद्धि में खोने की इच्छा हुई 
आज फिर उड़ने की इच्छा हुई ।


चंद लम्हे व्यस्त घंटों से निकालकर
कुछ उनकी पीड़ा ,कुछ खुशियों की
परिधि में विचरने की इच्छा हुई ।
आज फिर उड़ने की इच्छा हुई ।  

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"तमन्ना" (कविता विकास)

उनसे मिलने की तमन्ना थी बड़ी शिद्दत से
सामना  होते  ही हम अनजान हो गए
जिस पल को जीना चाहा बड़ी मुद्दत से
आगाज़ पाते ही वो खामोश हो गए ।
अरमानों की आग को छू कर देखो
बिन चिंगारी ही सुलगने को बेताब हैं
अहसास के नर्म थपेड़ों ज़रा सब्र रखो
हवा के झोंके रुख़ बदलने को तैयार हैं ।
 हम रेत में आशियाँ बनाने वाले हैं 
लहरों की परवाह खाक करते हैं 
फ़िक्र बस है कि सागर मेरे पास है 
दो बूंद की फिर भी प्यास है ।
अपनी खुदगर्ज़ी एक ताक पर रख
चलो उड़ जाते हैं लगा कर पंख
भौरें को पता है , लौ से टकराने की परिणति
तिल -तिल जलने का गम नहीं ,यही मेरी नियति ।

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"कुछ रातें कटती नहीं"

तृष्णाओं की यात्रा अनंत होती हैं ,
चाहे मन में लगाम लगा लो
कुछ इरादे दबते नहीं ।

आशाओं की पारदर्शिता छलावा होती हैं ,
चाहे लाख जतन कर लो
कुछ फासले थमते नहीं ।



विचारों की दुनिया विस्तृत होती है ,
चाहे शब्दों के रंग जितनी चढ़वा लो 
कुछ कैनवास भरते नहीं ।

सन्नाटों की प्रतिध्वनियाँ बुलंद होती हैं ,
चाहे कितनी भी दीवारें चुनवा लो
कुछ यादें बिसरती नहीं ।

बाट जोहते सुबह -शाम होती हैं ,
चाहे आँखों में साल बसा लो
कुछ रातें कटती नहीं ।



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